लक्ष्य की उंचाई सफलता को गति और उर्जा प्रदान करती है। परन्तु ऐसा लक्ष्य जो किसी बच्चे की क्षमता से अत्यधिक है । वह बच्चे को मानसिक रोगी या पागल बनाता है । और कभी कभी बच्चे आत्महत्या का शिकार हो जाते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि इस तरह का दबाव अनुचित है। जब जीवन ही नहीं रहेगा तो जीवन में लक्ष्य का कोई मतलब नहीं है।
जब लक्ष्य बच्चे की क्षमता की परिधि के बाहर होता है , तो वह लक्ष्य उसके लिए बोझ बन जाता है । चुंकि बच्चे अपने माता पिता को खुश देखना चाहते हैं, इसलिए वे झूठ बोलने लगते हैं। जैसे मैने याद कर लिया, होमवर्क कर लिया , मै नकल नहीं करता हूं , मै 90% से जादा अंक प्राप्त करूंगा इत्यादि। इस दबाव में वे अपने अन्दर छुपी मेधा को पररव नहीं पाते । और माता पिता के सोंच के ढांचे में फंस जाते हैं। और नौकरी की खोज में दर दर भटकते रहते हैं। आज के इस प्रतिस्पर्धा के कारण दूसरेआम बच्चे थोड़ा तकनीकी सीखकर रोजी रोटी की दौड़ में इस बच्चे से आगे निकल जाते हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि वे निम्न और कमजोर मानसिकता के शिकार नहीं बनते। मेरे अनुसार ऊंचे लक्ष्य को अपने बच्चे की क्षमता के अनुसार निश्चित करना चाहिए और दबाव न डालकर बच्चों की सहायता करनी चाहिए। उनसे कनेक्ट होना चाहिए। यही मन्त्र उनके जीवन को सफल बना सकता है।
माता पिता को मानसिक दबाव न देकर बच्चे से उसके समस्याओं के बारे में बात करने का प्रयास करना चाहिए । ताकि वह समझ सके कि आखिर उनका बच्चा क्यों नहीं अच्छे अंक प्राप्त नहीं कर पा है। ऐसा करने से बच्चे की कमजोरी का पता चल जाता है। जिसपर प्रयास कर के ठीक किया जा सकता है। पढ़ाई की क्रिया के समीप ऐसी बहुत सी बातें होती है, जो बच्चों को सिखाना पड़ता है। जैसे अनुशासन, खुश रहना , स्वस्थ रहने की कला, सामाजिकता पढ़ना -सुनना -लिखने के वृत्त की महत्ता इत्यादि | परीक्षा देने के तरीके सिखाना भी जरूरी है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है, कि बच्चे के स्थान पर अपने आप को रखकर हमें उसकी परेशानियों को समझना चाहिए। और उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए। अपने बच्चों को अनुशासन उत्साहित करना बहुत महत्वपूर्ण है। इससे वे अपने माता-पिता को सबसे अच्छा मित्र समझने लगते हैं। और अपनी जिम्मेदारी निभाने में अधिक सक्षम बन जाते हैं।
Leave a Reply
You must be logged in to post a comment.